छत्तीसगढ़: अंधविश्वास का मायाजाल…बकरी का पेशाब पीने से ठीक होता है TB का मरीज… जाने कहा हुआ ऐसा

रायपुर।। छत्तीसगढ़ के बस्तर (Bastar) संभाग के कोंडागांव जिले की 14 साल की रेवती कोर्राम टीबी (Tuberculosis) से जंग लड़ते दिसंबर 2020 में जिंदगी से हार गईं. उनके परिवार वालों ने अस्पताल से मिली दवाई बंद कर अंधविश्वास पर विश्वास कर लिया था. टोना-टोटका और झाड़-फूंक से टीबी के ठीक होने की उम्मीद करने लगे थे. स्वास्थ्य विभाग से मिली जानकारी के मुताबिक, 6 अगस्त 2020 को रेवती में टीबी के लक्षण की पुष्टि हुई थी. इलाज भी शुरू किया गया, लेकिन कुछ दिन बाद ही परिवार वाले उन्हें लेकर मूलनिवास कोंडागांव जिले के चेमा चले गए. यहां टीबी के लिए दी गई दवाई बंद कर दी गई और प्रेत का साया होने की बात कहकर झाड़-फूंक से इलाज करवाया जाने लगा. कोविड महामारी के कारण स्वास्थ्य विभाग द्वारा मॉनिटरिंग नहीं की जा सकी और 22 दिसंबर को रेवती ने दम तोड़ दिया.

बस्तर में टीबी के खिलाफ चल रही मुहिम में सक्रियता से काम करने वाली कल्याणी निषाद कहती हैं कि रेवती के साथ हुआ हादसा कोई पहला मामला नहीं है. बस्तर में यह आम बात है. इससे पहले जून 2018 में नारायणपुर के कोकड़ाझोर में 22 साल की युवती को बकरी के बाड़े में कई दिनों तक बंद रखा गया, क्योंकि वह टीबी की मरीज थी. स्थानीय लोगों का मानना था कि बकरी का पेशाब पिलाने और मल सुंघने से टीबी की बीमारी ठीक हो जाती है. आखिरकार कुछ दिनों बाद उसने भी दम तोड़ दिया. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में टीबी के लगभग हर केस में अंधविश्वास पर विश्वास कर इलाज करवाया जाता है.

जला रहीं जागरुकता की अलख

टीबी मुक्त छत्तीसगढ़ फाउंडेशन की अध्यक्ष कल्याणी निषाद कहती हैं कि वह खुद अंधविश्वास की इस जाल का शिकार हो चुकी हैं. अगस्त 2016 में वह नारायणपुर जिले में अपनी बुआ के घर थीं, तभी उनमें टीबी की पुष्टि हुई. इसके बाद उनके साथ भेदभाव शुरू हो गया. अलग कमरे में उन्हें बंद कर दिया गया. दवाई की बजाय उन्हें बकरी का पेशाब पिलाया गया. किसी तरह उनका संपर्क स्वास्थ्य विभाग की टीम से हुआ और सही तरीके से इलाज शुरू हुआ. अब वह ठीक हैं और खुद टीबी चैंपियन के तौर पर बस्तर के अंदरूनी इलाकों में काम कर रही हैं. इसके अलावा हर जिले में युवा टीबी वॉरियर जागरुकता फैला रहे हैं.

करते हैं नुक्कड़ नाटक

दंतेवाड़ा जिले के टीबी चैंपियन रविन्द्र कर्मा भी अंधविश्वास की जाल में फंस चुके हैं. 22 वर्षीय रविन्द्र कहते हैं कि अब टीबी के मरीजों व उनके परिजनों को जागरूक किया जा रहा है. टीबी मुक्त छत्तीसगढ़ और रिच संस्था के लिए काम करने वाले रविन्द्र बताते हैं कि पिछले तीन साल से वे दंतेवाड़ा में टीबी के खिलाफ काम कर रहे हैं. नुक्कड़ नाटक द्वारा लोगों को जागरूक किया जा रहा है. टीबी के लक्षण मिलने पर उन्हें अस्पताल ले जाया जाता है. दवाई की डोज पूरी होने तक मॉनिटरिंग की जाती है.

इन समस्याओं से होता है सामना

टीबी के खिलाफ घोर नक्सल प्रभावित इलाके नारायणपुर के ओरछा में काम करने वाले ब्लॉक टीबी ऑफिसर जय सिंह मांझी बताते हैं कि जानकारी के आभाव में लोग अंधविश्वास का सहारा लेते हैं. डॉक्टर या स्वास्थ्य कर्मियों से संपर्क करने की बजाय लोग टीबी होने पर बैगा के पास चले जाते हैं. हालांकि, पिछले कुछ समय से टीबी मुक्त छत्तीसगढ़ अभियान के तहत तेजी से काम हो रहा है. मरीजों की लगातार मॉनिटरिंग की जा रही है, लेकिन पूरी तरह से जागरुकता फैलाने में समय लगेगा, क्योंकि बस्तर में कई ऐसे गांव व कस्बे हैं, जहां आज भी आसानी से पहुंचा नहीं जा सकता है. टीबी डिटेक्ट होने के बाद भी कई लोग दवाइयां छोड़ झाड़-फूंक का सहारा लेते हैं. देशी इलाज करते हैं. इससे कई लोगों की जान भी चली जाती है. बस्तर संभाग के नारायणपुर, कोंडागांव, दंतेवाड़ा, सुकमा में ऐसी समस्याएं अधिक हैं.

दंतेवाड़ा के जिला टीबी अधिकारी दीपक कहते हैं कि टीबी के खिलाफ आदिवासी क्षेत्रों में तेजी से काम किया जा रहा है. हालांकि, कोविड महामारी का अभियान पर पड़ा, लेकिन अब फिर से व्यवस्था पटरी पर लौट रही है. टीबी चैंपियन अलग अलग इलाकों में सर्वे कर रहे हैं. अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को जागरूक करने के लिए जिला टीम द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है. स्थानीय बोली में लोगों को जागरूक किया जाता है. कोविड के कारण बंद पड़े इस अभियान को जनवरी 2021 से तेज कर दिया गया है.

सेवाएं पहुंचाने की जरूरत

छत्तीसगढ़ में स्वास्थ्य क्षेत्र में काम कर रहीं डॉ. सुलक्षणा नंदी कहती हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध न हो पाना भी अंधविश्वास को बढ़ावा देता है. दूरस्थ इलाकों तक जब तक सरकार की आसान पहुंच नहीं होगी, इस तरह के मामले सामने आते रहेंगे. आदिवासी इलाकों में स्वास्थ्य व्यवस्था पर शोध करने वाली डॉ. नंदी कहती हैं कि कई स्वास्थ्य कर्मियों का ग्रामीणों से उचित व्यवहार न करना भी अंधविश्वास की ओर उन्हें ढकेलता है. शोध के दौरान कई ऐसे तथ्य सामने आए, जिसमें मरीजों से सही व्यवाहार न करने के कारण वे डॉक्टर की बजाय वापस बैगा के पास झाड़-फूंक से इलाज कराने पहुंच गए. जानकारी के आभाव में लोग टीबी को छुआछूत की बीमारी भी समझते हैं. ऐसे में इस बीमारी के प्रति लोगों को जागरूक करना आसान नहीं होता है. हालांकि, जहां सुविधाएं पहुंच रही हैं, वहां लोग अगर झाड़-फूंक करवा रहे हैं तो वे दवाइयां भी लेते हैं.

स्टेट टीबी सेंटर में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहीं रूकैया बानो बताती हैं कि आदिवासी क्षेत्रों में टीबी को लेकर लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाया जा रहा है. स्थानीय टीबी टीम, टीबी चैंपियन के साथ मिलकर काम कर रही है. हाल ही में जनवरी और फरवरी महीने में राज्य भर में अलग अलग शिविर लगाए गए. इसमें लोगों को जागरूक किया गया. अब अंधविश्वास के मामले कम हो रहे हैं.

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