शाम होते ही शराब की दुकान पर भीड़ लग जाती है, कपड़ों में छिपाकर ट्रॉलियों में बोतल ले जाते हैं किसान

अरे एक बोतल दे दो, दे जाऊंगा पैसे। अरे मना ना करो, दे दो, अब तो हम यहां बस ही गए हैं, कहां जाएंगे, दे देंगे पैसे’। उधार शराब मांग रहे एक आंदोलनकारी किसान की गुहार को शराब बेचने वाले ने एक-दो बार अनसुना कर दिया। फिर एक बोतल निकाल कर हाथ में दे दी। किसान बोतल कुर्ते में रखकर चला गया। दुकानदार ने बताया, ‘ये सामने ही ट्रॉली में रहते हैं, दे जाएंगे पैसे। एक दो बार पहले भी उधार ली है, फिर पैसे दे गए हैं।’

टीकरी बॉर्डर पर शाम होते ही शराब के ठेके पर भीड़ लग जाती है। ग्राहकों में ज्यादातर लोग आंदोलन में शामिल किसान हैं। इनमें युवा भी हैं और बुजुर्ग भी। लोग शराब खरीदते हैं। डिब्बा वही फेंकते हैं और बोतल को कपड़ों में रखकर अपनी ट्रॉलियों की तरफ बढ़ जाते हैं।

शाम के पांच भी नहीं बजे हैं और कुछ युवा यहीं कोल्डड्रिंक की बोतल में शराब भरकर पी रहे हैं। पास में ही एक नॉन-वेज बेचने वाले ढाबे पर भीड़ लगनी शुरू हो गई है। यहां तंदूरी चिकन के साथ शराब के पैग लगाए जा रहे हैं। ये दृश्य देखकर मन में सवाल उठता है कि आंदोलन में शामिल होने वाले लोगों का शराब पीने से क्या मतलब?

लेकिन तुरंत ही इसका जवाब भी मन में कौंधने लगता है। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में शराब पर प्रतिबंध नहीं हैं। सरकार ने ही शराब पीने की आजादी लोगों को दी है तो फिर इसमें गलत क्या? टीकरी बॉर्डर पर शराब की दुकान पर भीड़ देखकर लगता है कि धंधा अच्छा चल रहा है। लेकिन दुकानदार से पूछो तो जवाब मिलता है- धंधा मंदा चल रहा है।

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टीकरी बॉर्डर पर शाम होते ही शराब के ठेके पर भीड़ लग जाती है। ग्राहकों में ज्यादातर लोग आंदोलन में शामिल किसान हैं।

दुकानदार ने बताया कि आंदोलन का कारोबार पर बड़ा असर हुआ है। कई दिन दुकान बंद भी रखनी पड़ी। कई बार किसान आंदोलनकारी ही दुकान बंद करवा देते हैं। हम उनकी बात बेझिझक मान भी लेते हैं। बिक्री के सवाल पर उसने कहा कि 30 फीसदी तक बिक्री कम हुई है। पहले आसपास की फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर भी शराब खरीदने आते थे। अब आंदोलन में शामिल लोग ही आ पा रहे हैं। सड़क बंद होने की वजह से दूसरे ग्राहक नहीं आ रहे हैं।

उधर सिंघु बॉर्डर पर किसान आंदोलन के मंच के पास ही एक बड़ा शराब का ठेका है जो इन दिनों बंद है। यहां मंच के ठीक सामने एक नॉनवेज रेस्त्रां हैं। यहां शाम होते ही लोग शराब पीते दिख जाते हैं। इनमें ज्यादातर आंदोलन में शामिल किसान ही हैं।

अंधेरा होते-होते ट्रॉलियों में भी बोतलें खुलती दिख जाती हैं। कहीं-कहीं युवा आंदोलनकारी भी पैग लगाते दिख जाते हैं। ये आंदोलन की पूरी तस्वीर नहीं हैं। इन्हें देखकर ये जरूर लगता है कि आंदोलन के दौरान भी लोगों पर ‘मौज-मस्ती’ सवार है। सच ये भी है कि जिस वक्त कुछ चुनिंदा लोग शराब के पैग लगा रहे होते हैं उसी वक्त हजारों लोग कड़कड़ाती ठंड में ट्रालियों में सिकुड़कर बैठे भी होते हैं।

आंदोलन के दौरान शराब पीने पर कोई खुलकर बात तो नहीं करता लेकिन, जिन लोगों से हमने बात करने की कोशिश की उनका कहना था, ‘हम घर पर भी तो शराब पीते हैं। अब ये सड़क ही हमारा घर है। तलब लगती है तो यहां भी पी लेते हैं।’ वहीं कुछ लोगों का जवाब होता है, ‘शराब पीना गैर कानूनी तो है नहीं और अगर है तो पुलिस यहां आकर रोक दे।’

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दुकान से शराब खरीदने के बाद लोग डिब्बा वही फेंक देते हैं और बोतल लेकर अपनी ट्रॉलियों की तरफ बढ़ जाते हैं।

हालांकि ज्यादातर लोग आंदोलन के दौरान किसानों के शराब पीने को गलत मानते हैं। एक बुजुर्ग किसान आंदोलनकारी अपना नाम बताए बिना कहते हैं, ‘आंदोलन त्याग मांगता है। बेहतर होता लोग आंदोलन के दौरान शराब जैसी बुरी आदतें छोड़ देते।’

हमने किसान नेता जोगिंदर सिंह उग्राहां से इस बारे में सवाल किया था तो उनका कहना था, ‘कुछ लोग शराब पीते दिख जाते हैं। हमारे कार्यकर्ता उन्हें मना करते हैं। लेकिन ये संख्या बहुत कम है और इसमें भी युवाओं के मुकाबले अधेड़ उम्र के लोग ज्यादा है।’

टीकरी बॉर्डर हो या सिंघु बॉर्डर, शाम होते-होते शराब पी रहे लोगों का दिखना कोई बड़ी बात नहीं है। कई जगह लोग नशे में धुत होकर उत्तेजक नारेबाजी करते भी दिख जाते हैं। दिल्ली की सरहदों पर किसानों के आंदोलन को अब चालीस से ज्यादा दिन हो गए हैं। तीनों कृषि कानूनों पर किसानों और सरकार के बीच बना गतिरोध टूटता नहीं दिखता। आंदोलन में लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। कई लोग तो अब बॉर्डर को ही अपना घर मानने लगे हैं।

यहां अकेले बैठकर शराब पी रहे एक व्यक्ति से हमने सवाल किया तो उसका कहना था, ‘मैं घर में होता तब भी शराब पी रहा होता। क्या शराब पीने वाले लोग अपना हक नहीं मांग सकते?’ कई लोगों ने सवाल उठाया है कि आंदोलन में शामिल लोग मौज-मस्ती कर रहे हैं। शराब पी रहे हैं। पिज्जा बर्गर खा रहे हैं। जिम कर रहे हैं। मसाज ले रहे हैं।

ये सवाल आंदोलनकारियों के सामने रखने पर जवाब मिलता है, ‘क्या ऐसा करने वाले लोग अपना हक नहीं मांग सकते, विरोध की आवाज नहीं उठा सकते?’ वो उलटे सवाल करते हैं, ‘जहां दसियों लाख किसान बैठे हों। ठंड में ठिठुर रहे हैं। दिसंबर की सर्द रात में ट्रॉली में सो रहे हों, वहां चुनिंदा लोगों की तस्वीर दिखाकर आंदोलन पर सवाल करना कितना सही है?’

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